बर्लिन - पिछले वर्ष दिसंबर में पेरिस में 195 सरकारों की इस बात पर आम सहमति बनी थी कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन को किस प्रकार रोका जाए। लेकिन हमेशा की तरह अगर इसे संयुक्त राष्ट्र के नज़रिए से देखा जाए तो किया गया यह समझौता घोषित महत्वाकांक्षाओं की दृष्टि से बड़ा था, लेकिन अगर इसे प्रतिबद्धताओं पर ठोस कार्रवाई करने के नज़रिए से देखा जाए तो यह बहुत ही मामूली था।
पेरिस जलवायु समझौते में यह प्रतिज्ञा शामिल है कि वार्मिंग को "पूर्व-औद्योगिक स्तरों से दो डिग्री सेल्सियस अधिक से काफी कम तक" रखा जाएगा। इसके अलावा, दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों के अनुरोध पर, इसमें "तापमान वृद्धि को 1.5º तक सीमित रखने के लिए प्रयास करते रहने" की प्रतिज्ञा करने के शब्दों को जोड़ा गया।
दिक्कत यह है कि ये आकांक्षाएँ समझौते में अपेक्षित प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नहीं हैं। इसके बजाय, समझौते की उत्सर्जनों को स्वैच्छिक रूप से कम करने के प्रतिज्ञाओं की प्रणाली से वैश्विक उत्सर्जनों में 2030 तक वृद्धि होती रहेगी, जिसके फलस्वरूप 2100 तक वार्मिंग का स्तर 3-3.5º होने की संभावना है। यह नीति निर्माण में विसंगति के एक प्रमुख उदाहरण की तरह लगता है।
सर्वप्रथम और सर्वोपरि समस्या समझौते में निर्धारित लक्ष्यों में दिखाई देती है। वार्मिंग को 1.5º या 2º तक सीमित रखने जैसे लक्ष्य नीति निर्माताओं और जनता का प्रभावी रूप से मार्गदर्शन नहीं कर सकते। ये लक्ष्य पूरी पृथ्वी की प्रणाली पर लागू होते हैं, न कि अलग-अलग संस्थाओं या सरकारों पर। स्पष्ट रूप से यह बताने में असफल रहकर कि अलग-अलग देशों को कौन से परिणाम देने हैं, इस प्रणाली से नेताओं को उत्सर्जनों को कम करने के लिए ऐसे लक्ष्यों का समर्थन करने का मौका मिलता है जो महत्वाकांक्षी लगते हैं, जबकि वे इन्हें कम करने के जो उपाय करते हैं वे वास्तव में नगण्य होते हैं।
कोई भी वैज्ञानिक सूत्र यह नहीं बता सकता कि उत्सर्जनों को वैश्विक रूप से कम करने के भार को देशों के बीच किस तरह समान रूप से बाँटा जाए, जिससे प्रत्येक सरकार विश्वासपूर्वक यह घोषित करने में समर्थ हो सके कि उसकी नीतियाँ किसी निर्धारित तापमान लक्ष्य के अनुरूप हैं। इसका मूल्यांकन केवल वैश्विक स्तर पर ही किया जा सकता है कि इन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा रहा है या नहीं, और इस तरह यदि कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है तो किसी भी देश को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र का प्रत्येक जलवायु शिखर सम्मेलन गंभीर चिंता के इन भावों के साथ संपन्न होता है कि कुल मिलाकर किए जा रहे प्रयास अपर्याप्त हैं।
इसे बदलना होगा। परंपरागत दृष्टिकोण में बातचीत, निर्णयों, और कार्रवाइयों में और अधिक संगतता की अपेक्षा की जाती है। लेकिन नीति निर्माण में विसंगति अंतर्निहित होती है। राजनयिक और राजनेता बातचीत, निर्णयों और कार्रवाइयों को अलग-अलग मानते हैं, जिससे विविध हितधारकों की मांगों को पूरा किया जा सके और अपने संगठनों के लिए बाहरी समर्थन को अधिकतम किया जा सके। जलवायु नीति में, बातचीत और निर्णय करते समय अधिकतर सरकारें प्रगतिशील रुख को चुनती हैं, लेकिन जब कार्रवाई करने का समय आता है तो वे अधिक सतर्कतापूर्ण रुख अपनाती हैं। संयुक्त राष्ट्र के महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य पूर्व शर्त के रूप में नहीं, बल्कि कार्रवाई के लिए विकल्प के रूप में सिद्ध हुए हैं।
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यह जलवायु लक्ष्यों को पूरी तरह से छोड़ देने का कोई कारण नहीं है। जटिल दीर्घकालिक नीति निर्माण को केवल तभी सफलता मिलती है जब महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए गए हों। लेकिन लक्ष्य अस्पष्ट महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के रूप में नहीं हो सकते हैं; वे सटीक, मूल्यांकन किए जाने योग्य, प्राप्त किए जाने योग्य, और प्रेरित करने वाले होने चाहिए। स्वयं पेरिस समझौता भी एक संभव दृष्टिकोण पेश करता है। अस्पष्ट रूप से परिभाषित एक सूत्र में प्रच्छन्न रूप से उत्सर्जन कम करने का एक तीसरा लक्ष्य पेश किया गया है: इस सदी की दूसरी छमाही में शून्य उत्सर्जनों तक पहुँचना।
शून्य उत्सर्जनों का लक्ष्य नीति निर्माताओं और जनता को सटीक रूप से यह बताता है कि क्या किया जाना चाहिए, और यह सीधे मानव गतिविधि पर ध्यान केंद्रित करता है। यह ज़रूरी है कि हर देश के उत्सर्जन शीर्ष तक पहुँचें, उनमें कमी हो, और अंत में वे शून्य तक पहुँचें। इससे न केवल राष्ट्रीय सरकारों, बल्कि शहरों, आर्थिक क्षेत्रों, कंपनियों, और यहाँ तक कि व्यक्तियों की कार्रवाइयों का मूल्यांकन करने के लिए भी एक पारदर्शी प्रणाली उपलब्ध होती है। इससे कर्तव्यविमुखता हतोत्साहित होगी क्योंकि इससे यह देखना - और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, जनता को यह समझाना - आसान होता है कि उत्सर्जनों में वृद्धि हो रही है या कमी।
ऐसे लक्ष्य से जीवाश्म ईंधन आधारित सभी नए बुनियादी ढाँचे गहन जाँच के अंतर्गत आ जाएँगे; यदि हमें उत्सर्जनों को कम करने की जरूरत है, तो किसी नए कोयला संयंत्र या अत्यंत अनअवरोधी भवन का निर्माण क्यों किया जाए? शून्य उत्सर्जनों की साझी कल्पना होने पर लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा में सबसे पहले आगे निकलने की होड़ भी लग सकती है। स्वीडन वहाँ 2045 तक पहुँचना चाहता है। यूनाइटेड किंगडम ने घोषणा की है कि वह शून्य उत्सर्जनों के लक्ष्य तक शीघ्र ही पहुँचने का विचार कर रहा है। जर्मनी अपने अगले चुनावों के बाद इसका पालन कर सकता है।
जलवायु स्थिरीकरण के लिए वैज्ञानिक सटीक सीमाओं, और नीति निर्माता शक्तिशाली प्रतीकों को पसंद करते हैं। यही कारण है कि वैश्विक जलवायु की बातचीत में तापमान लक्ष्य हावी रहते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि इसके फलस्वरूप स्वतः कार्रवाई नहीं होने लगती है । उत्सर्जनों को शून्य तक कम करने के प्रयास की दृष्टि से तापमान की सीमाओं को बदल देने से जवाबदेही सुनिश्चित होगी और राजनीतिक विसंगति कम होगी।
इस तरह के दृष्टिकोण का एक पूर्वोदाहरण उपलब्ध है। ओज़ोन परत की रक्षा करने के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में मुख्य रूप से हानिकारक तत्वों पर विचार किया गया है, इसमें उन्हें क्रमशः समाप्त किए जाने के कार्य में तेजी लाने के कोशिश है, न कि ओज़ोन परत के स्थिरीकरण के किसी लक्ष्य को परिभाषोत करने की।
वास्तविक दुनिया के उत्सर्जनों और वार्मिंग को स्वीकृत सीमाओं से कम रखने के लिए आवश्यक उत्सर्जनों के बीच का अंतराल तेजी से बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल को इस बारे में विस्तृत जाँच करने का कार्य सौंपा है कि पहले से ही निर्धारित की जा चुकी 1.5 डिग्री सेल्सियस की अव्यावहारिक सीमा को कैसे प्राप्त किया जाए। इसमें यह जोखिम निहित है कि दुनिया बढ़े-चढ़े लक्ष्यों के बारे में एक और बहस पर बहुमूल्य समय बर्बाद करेगी।
हमारा तापमान लक्ष्य चाहे कुछ भी हो, वैश्विक उत्सर्जन शीघ्र ही शीर्ष तक पहुँचेंगे और उसके बाद वे कम होने लगेंगे और अंततः शून्य तक पहुँच जाएँगे। पेरिस जलवायु समझौते को केवल तभी सफल समझौते के रूप में याद किया जाएगा यदि हम अपना ध्यान बातचीत के बजाय प्रभावी कार्रवाई पर केंद्रित कर पाएँगे।
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No country wants external developments to drive up its borrowing costs and weaken its currency, which is what the UK is facing today, together with serious cyclical and structural challenges. But if the British government responds appropriately, recent market volatility might turn out to have a silver lining.
urges the government to communicate better what it is doing to boost resilient growth – and to do more.
Ricardo Hausmann
urges the US to issue more H1-B visas, argues that Europe must become a military superpower in its own right, applies the “growth diagnostics” framework to Venezuela, and more.
बर्लिन - पिछले वर्ष दिसंबर में पेरिस में 195 सरकारों की इस बात पर आम सहमति बनी थी कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन को किस प्रकार रोका जाए। लेकिन हमेशा की तरह अगर इसे संयुक्त राष्ट्र के नज़रिए से देखा जाए तो किया गया यह समझौता घोषित महत्वाकांक्षाओं की दृष्टि से बड़ा था, लेकिन अगर इसे प्रतिबद्धताओं पर ठोस कार्रवाई करने के नज़रिए से देखा जाए तो यह बहुत ही मामूली था।
पेरिस जलवायु समझौते में यह प्रतिज्ञा शामिल है कि वार्मिंग को "पूर्व-औद्योगिक स्तरों से दो डिग्री सेल्सियस अधिक से काफी कम तक" रखा जाएगा। इसके अलावा, दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों के अनुरोध पर, इसमें "तापमान वृद्धि को 1.5º तक सीमित रखने के लिए प्रयास करते रहने" की प्रतिज्ञा करने के शब्दों को जोड़ा गया।
दिक्कत यह है कि ये आकांक्षाएँ समझौते में अपेक्षित प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नहीं हैं। इसके बजाय, समझौते की उत्सर्जनों को स्वैच्छिक रूप से कम करने के प्रतिज्ञाओं की प्रणाली से वैश्विक उत्सर्जनों में 2030 तक वृद्धि होती रहेगी, जिसके फलस्वरूप 2100 तक वार्मिंग का स्तर 3-3.5º होने की संभावना है। यह नीति निर्माण में विसंगति के एक प्रमुख उदाहरण की तरह लगता है।
सर्वप्रथम और सर्वोपरि समस्या समझौते में निर्धारित लक्ष्यों में दिखाई देती है। वार्मिंग को 1.5º या 2º तक सीमित रखने जैसे लक्ष्य नीति निर्माताओं और जनता का प्रभावी रूप से मार्गदर्शन नहीं कर सकते। ये लक्ष्य पूरी पृथ्वी की प्रणाली पर लागू होते हैं, न कि अलग-अलग संस्थाओं या सरकारों पर। स्पष्ट रूप से यह बताने में असफल रहकर कि अलग-अलग देशों को कौन से परिणाम देने हैं, इस प्रणाली से नेताओं को उत्सर्जनों को कम करने के लिए ऐसे लक्ष्यों का समर्थन करने का मौका मिलता है जो महत्वाकांक्षी लगते हैं, जबकि वे इन्हें कम करने के जो उपाय करते हैं वे वास्तव में नगण्य होते हैं।
कोई भी वैज्ञानिक सूत्र यह नहीं बता सकता कि उत्सर्जनों को वैश्विक रूप से कम करने के भार को देशों के बीच किस तरह समान रूप से बाँटा जाए, जिससे प्रत्येक सरकार विश्वासपूर्वक यह घोषित करने में समर्थ हो सके कि उसकी नीतियाँ किसी निर्धारित तापमान लक्ष्य के अनुरूप हैं। इसका मूल्यांकन केवल वैश्विक स्तर पर ही किया जा सकता है कि इन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा रहा है या नहीं, और इस तरह यदि कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है तो किसी भी देश को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र का प्रत्येक जलवायु शिखर सम्मेलन गंभीर चिंता के इन भावों के साथ संपन्न होता है कि कुल मिलाकर किए जा रहे प्रयास अपर्याप्त हैं।
इसे बदलना होगा। परंपरागत दृष्टिकोण में बातचीत, निर्णयों, और कार्रवाइयों में और अधिक संगतता की अपेक्षा की जाती है। लेकिन नीति निर्माण में विसंगति अंतर्निहित होती है। राजनयिक और राजनेता बातचीत, निर्णयों और कार्रवाइयों को अलग-अलग मानते हैं, जिससे विविध हितधारकों की मांगों को पूरा किया जा सके और अपने संगठनों के लिए बाहरी समर्थन को अधिकतम किया जा सके। जलवायु नीति में, बातचीत और निर्णय करते समय अधिकतर सरकारें प्रगतिशील रुख को चुनती हैं, लेकिन जब कार्रवाई करने का समय आता है तो वे अधिक सतर्कतापूर्ण रुख अपनाती हैं। संयुक्त राष्ट्र के महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य पूर्व शर्त के रूप में नहीं, बल्कि कार्रवाई के लिए विकल्प के रूप में सिद्ध हुए हैं।
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शून्य उत्सर्जनों का लक्ष्य नीति निर्माताओं और जनता को सटीक रूप से यह बताता है कि क्या किया जाना चाहिए, और यह सीधे मानव गतिविधि पर ध्यान केंद्रित करता है। यह ज़रूरी है कि हर देश के उत्सर्जन शीर्ष तक पहुँचें, उनमें कमी हो, और अंत में वे शून्य तक पहुँचें। इससे न केवल राष्ट्रीय सरकारों, बल्कि शहरों, आर्थिक क्षेत्रों, कंपनियों, और यहाँ तक कि व्यक्तियों की कार्रवाइयों का मूल्यांकन करने के लिए भी एक पारदर्शी प्रणाली उपलब्ध होती है। इससे कर्तव्यविमुखता हतोत्साहित होगी क्योंकि इससे यह देखना - और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, जनता को यह समझाना - आसान होता है कि उत्सर्जनों में वृद्धि हो रही है या कमी।
ऐसे लक्ष्य से जीवाश्म ईंधन आधारित सभी नए बुनियादी ढाँचे गहन जाँच के अंतर्गत आ जाएँगे; यदि हमें उत्सर्जनों को कम करने की जरूरत है, तो किसी नए कोयला संयंत्र या अत्यंत अनअवरोधी भवन का निर्माण क्यों किया जाए? शून्य उत्सर्जनों की साझी कल्पना होने पर लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा में सबसे पहले आगे निकलने की होड़ भी लग सकती है। स्वीडन वहाँ 2045 तक पहुँचना चाहता है। यूनाइटेड किंगडम ने घोषणा की है कि वह शून्य उत्सर्जनों के लक्ष्य तक शीघ्र ही पहुँचने का विचार कर रहा है। जर्मनी अपने अगले चुनावों के बाद इसका पालन कर सकता है।
जलवायु स्थिरीकरण के लिए वैज्ञानिक सटीक सीमाओं, और नीति निर्माता शक्तिशाली प्रतीकों को पसंद करते हैं। यही कारण है कि वैश्विक जलवायु की बातचीत में तापमान लक्ष्य हावी रहते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि इसके फलस्वरूप स्वतः कार्रवाई नहीं होने लगती है । उत्सर्जनों को शून्य तक कम करने के प्रयास की दृष्टि से तापमान की सीमाओं को बदल देने से जवाबदेही सुनिश्चित होगी और राजनीतिक विसंगति कम होगी।
इस तरह के दृष्टिकोण का एक पूर्वोदाहरण उपलब्ध है। ओज़ोन परत की रक्षा करने के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में मुख्य रूप से हानिकारक तत्वों पर विचार किया गया है, इसमें उन्हें क्रमशः समाप्त किए जाने के कार्य में तेजी लाने के कोशिश है, न कि ओज़ोन परत के स्थिरीकरण के किसी लक्ष्य को परिभाषोत करने की।
वास्तविक दुनिया के उत्सर्जनों और वार्मिंग को स्वीकृत सीमाओं से कम रखने के लिए आवश्यक उत्सर्जनों के बीच का अंतराल तेजी से बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल को इस बारे में विस्तृत जाँच करने का कार्य सौंपा है कि पहले से ही निर्धारित की जा चुकी 1.5 डिग्री सेल्सियस की अव्यावहारिक सीमा को कैसे प्राप्त किया जाए। इसमें यह जोखिम निहित है कि दुनिया बढ़े-चढ़े लक्ष्यों के बारे में एक और बहस पर बहुमूल्य समय बर्बाद करेगी।
हमारा तापमान लक्ष्य चाहे कुछ भी हो, वैश्विक उत्सर्जन शीघ्र ही शीर्ष तक पहुँचेंगे और उसके बाद वे कम होने लगेंगे और अंततः शून्य तक पहुँच जाएँगे। पेरिस जलवायु समझौते को केवल तभी सफल समझौते के रूप में याद किया जाएगा यदि हम अपना ध्यान बातचीत के बजाय प्रभावी कार्रवाई पर केंद्रित कर पाएँगे।