ओबामा बनाम ओबामाकेयर

न्यूयार्क – राष्ट्रपति बराक ओबामा का सिग्नेचर 2010 स्वास्थ्य-देखभाल सुधार, यूएस रोगी संरक्षण और किफ़ायती देखभाल अधिनियम (पेशेंट प्रोटेक्शन एंड अफ़ोर्डेबल केयर एक्ट), उन लाखों अमेरिकियों के लिए बीमा कवरेज का विस्तार करने में सफल रहा है जिन्हें यह अन्यथा उपलब्ध न हो पाता। और, आलोचकों की चेतावनियों के विपरीत, इससे स्वास्थ्य-देखभाल की लागतें बढ़ी नहीं हैं; वास्तव में, इस बात की कुछ आशा है कि लागत की वक्र रेखा अंततः नीचे की ओर झुक सकती है।

लेकिन इस बात का कोई आश्वासन नहीं है कि "ओबामाकेयर" से स्वास्थ्य-देखभाल की अत्यधिक ऊँची लागतों को कम करने में सफलता मिलेगी या नहीं। यह ओबामा के प्रशासन की अन्य नीतियों पर निर्भर करेगा, ख़ास तौर से ऐसे क्षेत्र में जो असंबंधित प्रतीत हो सकता है: बौद्धिक संपदा पर संयुक्त राज्य अमेरिका की भारत के साथ चल रही चर्चाएँ। और यहाँ, ओबामा शक्तिशाली यूएस फ़ार्मास्यूटिकल लॉबी के दबाव के कारण, अपने खुद के सिग्नेचर सुधार को कमज़ोर करने के लिए कटिबद्ध प्रतीत हो रहे हैं।

फ़ार्मास्यूटिकल की लागतें अमेरिकी स्वास्थ्य-देखभाल ख़र्च का अधिकाधिक बड़ा हो रहा घटक बन रहा है। वास्तव में, सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के रूप में, सिर्फ़ 20 साल में नुस्ख़े की दवाओं के परिव्यय लगभग तीन गुना हो गए हैं। इसलिए स्वास्थ्य-देखभाल की लागतें कम करने के लिए फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग में और ज़्यादा प्रतिस्पर्धा की ज़रूरत है - और इसका मतलब है, सामान्य दवाओं के निर्माण और वितरण की अनुमति देना। इसके बजाय, ओबामा प्रशासन भारत के साथ एक ऐसा व्यापार समझौता करने की कोशिश कर रहा है जो सामान्य दवाओं से प्रतिस्पर्धा को कमज़ोर करेगा, और इस तरह - भारत और दूसरे देशों में - अरबों लोगों के लिए जीवन-रक्षक दवाओं को महँगा बना देगा। यह इस अन्यथा नेक इरादे वाली नीति का अनपेक्षित परिणाम नहीं है; यह यूएस व्यापार नीति का स्पष्ट लक्ष्य है।

प्रमुख बहुराष्ट्रीय फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियाँ लंबे समय से सामान्य दवाओं में प्रतिस्पर्धा अवरुद्ध करने का काम कर रही हैं। लेकिन विश्व व्यापार संगठन का उपयोग करके, बहुपक्षीय दृष्टिकोण उससे कम प्रभावी साबित हुआ है जिसकी उन्होंने उम्मीद की थी, इसलिए अब वे द्विपक्षीय और क्षेत्रीय समझौतों के माध्यम से इस लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत - जो विकासशील देशों के लिए सामान्य दवाओं का प्रमुख स्रोत है – के साथ नवीनतम समझौते इस रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

1970 के दशक में, भारत ने फ़ार्मास्यूटिकल पेटेंटों को समाप्त कर दिया, जिससे एक ऐसा उन्नत और कुशल सामान्य दवा उद्योग तैयार हुआ जो पूरी विकासशील दुनिया में लोगों को सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराने में सक्षम है। 2005 में यह स्थिति उस समय बदल गई जब विश्व व्यापार संगठन के बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं पर समझौते (TRIPS) ने भारत को दवाओं के पेटेंटों की अनुमति देने के लिए मजबूर कर दिया।

लेकिन, अमेरिका के फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग की दृष्टि से TRIPS ने बहुत ज़्यादा काम नहीं किया। इस प्रकार, अमेरिका के साथ अपने व्यापार संबंध बढ़ाने की भारत सरकार की इच्छा इस उद्योग को, भारत को पेटेंट प्राप्त करना आसान बनाकर और कम-लागत वाली सामान्य दवाओं की उपलब्धता कम करने के लिए मजबूर करके वहाँ से काम आगे बढ़ाने का आदर्श अवसर देती है, जहाँ पर TRIPS ने इसे छोड़ दिया था।

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अब तक, ऐसा लगता है कि यह योजना काम कर रही है। पिछले पतझड़ में, अमेरिका की यात्रा के दौरान, भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी देश की पेटेंट नीति का पुनः मूल्यांकन करने के लिए कार्यदल की स्थापना करने पर सहमत हो गए। इस समूह में अमेरिकी प्रतिभागियों का नेतृत्व यूएस का व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय करेगा, जो राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, राष्ट्रीय विज्ञान फ़ाउंडेशन, या राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान के बजाय फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों के हितों के लिए काम करता है।

भारत अपनी पेटेंट प्रणाली को कैसे कठोर बना सकता है? शुरुआत करनेवालों के लिए, यह उनके उन उत्पादों के लिए मानकों को कम कर सकता है जिन्हें "नवीन" उत्पाद माना जाता है, यानी उन उत्पादों के लिए जिनका बौद्धिक-संपदा संरक्षण किए जाने की आवश्यकता है। अभी तक की स्थिति के अनुसार, भारत मानदंड बहुत ऊँचे रखता है, जिसके परिणामस्वरूप यह मौजूदा दवाओं के नए संयोजन के लिए पेटेंट की अनुमति देने के लिए मना करता है। भारत निश्चित शुल्क देने के आधार पर, अन्य कंपनियों को पेटेंट-धारक की दवा की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करना बंद सकता है – यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसकी TRIPS के अंतर्गत अनुमति है, लेकिन यह फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग के लिए अभिशाप होगा।

भारत की वर्तमान नीतियाँ दवाओं के पेटेंट धारकों द्वारा निर्धारित एकाधिकार क़ीमतों से बहुत ही कम कीमत पर दवाएँ बेचने की अनुमति देती हैं। उदाहरण के लिए, हेपेटाइटिस-सी दवा सोवाल्डी यूएस में प्रति इलाज $84,000 पर बेची जाती है; जबकि भारतीय निर्माता इसका सामान्य संस्करण प्रति इलाज $1,000 से कम पर लाभप्रद ढंग से बेच लेते हैं। सामान्य दवा की क़ीमत उन लोगों के लिए अभी भी बहुत भारी ख़र्च है जो प्रतिदिन कुछ डॉलर पर जीवन-यापन कर रहे हैं; लेकिन अमेरिकी मूल्य के विपरीत, यह अनेक सरकारों और सहायता संगठनों के लिए प्रबंधनीय है।

यह कतई अलग-थलग उदाहरण नहीं है। कम-लागत वाली सामान्य दवाओं के कारण विकासशील दुनिया में एचआईवी/एड्स के लाखों रोगियों का इलाज करना संभव हो गया है।

वास्तव में, आंशिक रूप से भारतीय सामान्य दवाओं से प्रतिस्पर्धा का ख़तरा होने के कारण ही प्रमुख फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों ने अपनी कुछ दवाएँ दुनिया के ग़रीबों के लिए कम क़ीमतों पर उपलब्ध कराने का फ़ैसला किया है। अगर अमेरिका भारत को अपने पेटेंट नियमों को बहुत अधिक कठोर बनाने के लिए मजबूर कर देता है ताकि वे यूएस नियमों के बहुत अधिक समान हो जाएँ, तो यह परिणाम जोखिम वाला हो सकता है।

निश्चित रूप से, अगर अमेरिका की मजबूत पेटेंट व्यवस्था फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग में नवाचार को मज़बूत करने का सर्वोत्तम तरीका है, जैसा कि इसके समर्थकों का दावा है, तो भारत के प्रति ओबामा प्रशासन की नीति शायद उचित हो सकती है। लेकिन स्थिति ऐसी नहीं है।

चूँकि पेटेंट अनिवार्य रूप से सरकार द्वारा दिए जाने वाले एकाधिकार हैं, इसलिए वे उन्हीं अक्षमताओं और किराया वसूली के तरीके की ओर ले जाते हैं जैसा कि ऐसे किसी अन्य बाज़ार विरूपण में होता है। जो पेटेंट किसी दवा के मूल्य को सौ-गुना बढ़ा देता है, उसका बाज़ार पर 10,000% टैरिफ़ जितना असर होता है। ऐसे मामलों में, दवा कंपनियों को डॉक्टरों और जनता को अपने उत्पादों की सुरक्षा और प्रभावशीलता के बारे में गुमराह करने, और यहाँ तक कि अपनी दवाओं के अनुचित इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए भारी प्रोत्साहन मिल जाता है, जिसके लिए वे अकसर डॉक्टरों को उन दवाइयों का नुस्ख़ा लिखने के लिए राजी करने के लिए नवाचारी प्रलोभनकारी भुगतान की विधि का इस्तेमाल करते हैं।

इसके अलावा, पेटेंट-समर्थित शोध में गोपनीयता को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि कंपनियाँ केवल उसी जानकारी का खुलासा करती हैं जो पेटेंट हासिल करने के लिए ज़रूरी होती है। फिर भी कुशल वैज्ञानिक प्रगति के लिए खुलापन होना महत्वपूर्ण है। इस आलेख के लेखकों सहित अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन समस्याओं से बचने के लिए पेटेंट-समर्थित अनुसंधान और विकास के लिए विभिन्न प्रकार के विकल्पसुझाए हैं।

अगर ओबामा प्रशासन भारत को अपने पेटेंट क़ानूनों को कठोर बनाने के लिए मजबूर करने में सफल हो जाता है, तो इस बदलाव से न केवल भारत और अन्य विकासशील देशों को नुक़सान होगा; बल्कि यह यूएस की निहायत भ्रष्ट और अक्षम पेटेंट प्रणाली को भी प्रतिष्ठापित कर देगा, जिसमें कंपनियाँ – अपने देश में और विदेशों में - प्रतिस्पर्धा को दूर करके मुनाफा कमाती हैं। आखिरकार, पेटेंट की अवधियाँ समाप्त हो जाने पर, भारत की सामान्य दवाएँ अकसर अमेरिकी बाज़ार में सबसे कम लागत का विकल्प प्रदान करती हैं।

ओबामा ने एक ऐसे स्वास्थ्य-देखभाल सुधार का प्रस्ताव रखकर ठीक ही किया है जिससे इस क्षेत्र की कुशलता और पहुँच बढ़ेगी। भारत के साथ किए जानेवाले समझौते में ओबामा प्रशासन एक ऐसी नीति का अनुसरण कर रहा है जो इन लक्ष्यों की अवहेलना करती है जिसका प्रभाव न केवल भारत और यूएस बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा।

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