बर्लिन – संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 को अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष घोषित किया है, और 19-23 अप्रैल को इस वर्ष का वैश्विक मृदा सप्ताह मनाया जाएगा। हालाँकि इस तरह की घटनाएँ वास्तव में इतनी आकर्षक नहीं होती हैं, फिर भी उन पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है जितना कि दिया जाना चाहिए।
अक्षत मृदा एक अमूल्य और अपूरणीय संसाधन है, इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के विकास और पर्यावरण के मुख्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विविध कार्य संपन्न होते हैं। और अब उसकी सुरक्षा किया जाना अत्यंत आवश्यक है।
स्वस्थ मृदा मानव पोषण और भूख के खिलाफ लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण है। हम न केवल खाद्य उत्पादन के लिए, बल्कि पीने का नया पानी तैयार करने के लिए भी इस पर निर्भर करते हैं। यह पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करती है, दुनिया के सभी वनों को मिलाकर उनकी तुलना में कार्बन का अधिक भंडारण करती है, (केवल महासागर ही कार्बन के अधिक बड़े भंडार हैं), और यह जैव विविधता को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं: इस धरती पर जितने मानव हैं उनकी तुलना में थोड़ी-सी उपजाऊ मृदा में कहीं अधिक मात्रा में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं। पृथ्वी की दो-तिहाई प्रजातियाँ इसकी सतह के नीचे बसती हैं।
लेकिन भू-क्षरण और प्रदूषण के कारण मृदा पर भारी दबाव पड़ रहा है। दुनिया भर में, प्रतिवर्ष 24 बिलियन टन उपजाऊ मृदा नष्ट हो जाती है, जिसका आंशिक रूप से कारण शहरों और बुनियादी ढाँचे का विकास है। अकेले जर्मनी में, निर्माण परियोजनाओं में प्रतिदिन औसतन 75 हेक्टेयर से अधिक मृदा खप जाती है। इसके लिए अनुपयुक्त कृषि पद्धतियाँ भी जिम्मेदार हैं: उदाहरण के लिए, कृत्रिम उर्वरक का उपयोग अधिक मात्रा में किए जाने के कारण, मृदा में बसनेवाले जीव नष्ट हो जाते हैं और इसकी संरचना में परिवर्तन हो जाता है। मृदा की उपजाऊ ऊपरी परत बनने में कई सदियों का समय लग जाता है; कई स्थानों पर, अब मूसलधार बारिश होने भर से यह नष्ट हो जाती है।
इसके साथ ही, भोजन, चारा, और ईंधन के लिए जैवमात्रा की वैश्विक मांग के फलस्वरूप भूमि के मूल्य बढ़ रहे हैं - यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी ओर अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों का ध्यान अवश्य गया होगा। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में कृषि योग्य भूमि में से 10-30% भूमि, जिसका उपयोग लाखों छोटे भूमिधारकों चरवाहों, और स्थानीय लोगों द्वारा किया जाएगा बड़े पैमाने पर निवेश किए जाने से प्रभावित हुई है।
इस प्रकार, दुनिया के अधिकतर हिस्से में व्यक्तियों और समुदायों के लिए भूमि अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना अस्तित्व का मुद्दा बन गया है। भूमि तक पहुँच भूख के प्रमुख निर्धारकों में से एक है, और यह आय की तुलना में और भी अधिक असमान रूप से वितरित होती है। भूख से प्रभावित लगभग 20% परिवार भूमिहीन हैं, और भूख से पीड़ित परिवारों में से 50% छोटे भूमिधारक परिवार हैं।
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यूरोप में, हम एक अरसे से अपनी घरेलू कृषि भूमि से सीमा से अधिक उपज प्राप्त कर रहे हैं, इसलिए अब हम वैश्विक दक्षिण से बहुत बड़े पैमाने पर इसका "आयात" कर रहे हैं। यूरोपीय संघ की माँस की खपत को पूरा करने के लिए आवश्यक चारे का उत्पादन करने के लिए ब्राज़ील में यूनाइटेड किंगडम के आकार जितने बड़े कृषि भूमि के क्षेत्र की आवश्यकता होती है। यदि हर मनुष्य उतना माँस खाना शुरू कर दे जितना कि औसतन यूरोपीय संघ का नागरिक खाता है, तो इसका उत्पादन करने के लिए दुनिया की 80% कृषि योग्य भूमि को इसमें लगाना होगा जबकि वर्तमान में यह 33% है। और हमें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए: यह देखते हुए कि चारे की 100 कैलोरी से माँस की अधिकतम 30 कैलोरी तक का उत्पादन किया जा सकता है, इस उद्देश्य के लिए उपजाऊ भूमि का उपयोग करना सरासर बर्बादी है।
कई सरकारें जिस "हरित विकास" का वादा कर रही हैं उससे इस प्रवृत्ति में इस रूप में तेज़ी आएगी कि यह तेल और कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन को बदलने के लिए जैव ईंधन पर निर्भर करता है। जैव ईंधनों से जलवायु को उस हद तक लाभ नहीं मिलता है जितना कि हवा या सौर ऊर्जा प्रणालियों से, क्योंकि इनसे प्रति वर्ग मीटर ऊर्जा का केवल दसवाँ हिस्सा ही प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप, यूरोपीय संघ के जलवायु और ऊर्जा के लिए 2030 के फ्रेमवर्क में में निहित जैव ईंधन की आवश्यकताओं के लिए अतिरिक्त 70 मिलियन हेक्टेयर भूमि - फ्रांस से भी बड़े क्षेत्र - की आवश्यकता होगी।
ऐसा नहीं है कि मृदा की रक्षा करने से समृद्धि में कमी आएगी। इसके विपरीत, वास्तव में स्थायी मृदा संरक्षण प्रथाओं से कृषि पैदावारों में वृद्धि हो सकती है, विशेष रूप से छोटे भूमिधारकों की। फसल विविधीकरण, पुनर्चक्रण, और मृदा की परत ये सभी ऐसी उपयोगी, उपजाऊ, और सक्रिय मृदा में योगदान कर सकते हैं जो इष्टतम जल प्रबंधन करने में सक्षम हो।
कृषि-पारिस्थितिकी नामक तथाकथित दृष्टिकोण, छोटे किसानों के पारंपरिक ज्ञान और अनुभव पर आधारित है जिससे इसे स्थानीय परिस्थितियों के लिए आसानी से अनुकूल बनाया जा सकता है। 2006 में जूल्स प्रेटी द्वारा किए गए कृषि-पारिस्थितिकी खेती के तरीकों के एक अध्ययन में 57 देशों में 286 स्थायी कृषि परियोजनाओं की जाँच की गई और यह निष्कर्ष निकला कि पैदावारों में औसतन 79% की वृद्धि हुई थी।
इस तरह के तरीकों की प्रमाणित सफलता के बावजूद, कृत्रिम उर्वरकों के उपयोग में पिछले 50 वर्षों में पाँच से अधिक गुणक की दर से वृद्धि हुई है, और कई अफ्रीकी सरकारें उन्हें सहायता देने के लिए अपने कृषि बजटों का 60% तक खर्च करती हैं। विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय वातावरणों में, इस तरह के उत्पादों के फलस्वरूप मृदा की ऊपरी परत को नुकसान पहुँचता है और जैव विविधता का भी नुकसान होता है (और अपवाह, महासागरों में चला जाता है जहाँ यह समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों को क्षति पहुँचाता है)। और, यद्यपि उनके मुख्य घटक, नाइट्रोजन को जैविक रूप से और सतत रूप से तैयार किया जा सकता है, परंतु यह कदम मुट्ठी भर शक्तिशाली उर्वरक निर्माताओं और वितरकों के हितों के ख़िलाफ चला जाएगा।
नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करें: गरीब लोग भूख और निर्धनता से बचने के लिए पर्याप्त खाद्य का उत्पादन इस प्रकार कैसे कर सकते हैं कि उससे मृदा की रक्षा हो, जलवायु परिवर्तन में कमी हो, और जैव विविधता की रक्षा हो?
इस मुद्दे की तात्कालिकता के बावजूद, कहीं भी कृषि-पारिस्थितिकी उत्पादन जैसे दृष्टिकोणों को किसी भी गंभीर सीमा तक प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष और वैश्विक मृदा सप्ताह जैसी घटनाएँ इसे नए सिरे से पूरी तरह बदलने का अवसर प्रदान करती हैं।
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Even as South Korea was plunged into political turmoil following the president’s short-lived declaration of martial law, financial markets have remained calm. But the country still has months of political uncertainty ahead, leaving it in a weak position to respond to US policy changes when President-elect Donald Trump takes office.
argues that while markets shrugged off the recent turmoil, the episode could have long-lasting consequences.
Dominant intellectual frameworks persist until their limitations in describing reality become undeniable, paving the way for a new paradigm. The idea that the world can and will replace fossil fuels with renewables has reached that point.
argue that replacing fossil fuels with renewables is an idea that has exhausted its utility.
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बर्लिन – संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 को अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष घोषित किया है, और 19-23 अप्रैल को इस वर्ष का वैश्विक मृदा सप्ताह मनाया जाएगा। हालाँकि इस तरह की घटनाएँ वास्तव में इतनी आकर्षक नहीं होती हैं, फिर भी उन पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है जितना कि दिया जाना चाहिए।
अक्षत मृदा एक अमूल्य और अपूरणीय संसाधन है, इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के विकास और पर्यावरण के मुख्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विविध कार्य संपन्न होते हैं। और अब उसकी सुरक्षा किया जाना अत्यंत आवश्यक है।
स्वस्थ मृदा मानव पोषण और भूख के खिलाफ लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण है। हम न केवल खाद्य उत्पादन के लिए, बल्कि पीने का नया पानी तैयार करने के लिए भी इस पर निर्भर करते हैं। यह पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करती है, दुनिया के सभी वनों को मिलाकर उनकी तुलना में कार्बन का अधिक भंडारण करती है, (केवल महासागर ही कार्बन के अधिक बड़े भंडार हैं), और यह जैव विविधता को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं: इस धरती पर जितने मानव हैं उनकी तुलना में थोड़ी-सी उपजाऊ मृदा में कहीं अधिक मात्रा में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं। पृथ्वी की दो-तिहाई प्रजातियाँ इसकी सतह के नीचे बसती हैं।
लेकिन भू-क्षरण और प्रदूषण के कारण मृदा पर भारी दबाव पड़ रहा है। दुनिया भर में, प्रतिवर्ष 24 बिलियन टन उपजाऊ मृदा नष्ट हो जाती है, जिसका आंशिक रूप से कारण शहरों और बुनियादी ढाँचे का विकास है। अकेले जर्मनी में, निर्माण परियोजनाओं में प्रतिदिन औसतन 75 हेक्टेयर से अधिक मृदा खप जाती है। इसके लिए अनुपयुक्त कृषि पद्धतियाँ भी जिम्मेदार हैं: उदाहरण के लिए, कृत्रिम उर्वरक का उपयोग अधिक मात्रा में किए जाने के कारण, मृदा में बसनेवाले जीव नष्ट हो जाते हैं और इसकी संरचना में परिवर्तन हो जाता है। मृदा की उपजाऊ ऊपरी परत बनने में कई सदियों का समय लग जाता है; कई स्थानों पर, अब मूसलधार बारिश होने भर से यह नष्ट हो जाती है।
इसके साथ ही, भोजन, चारा, और ईंधन के लिए जैवमात्रा की वैश्विक मांग के फलस्वरूप भूमि के मूल्य बढ़ रहे हैं - यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी ओर अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों का ध्यान अवश्य गया होगा। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में कृषि योग्य भूमि में से 10-30% भूमि, जिसका उपयोग लाखों छोटे भूमिधारकों चरवाहों, और स्थानीय लोगों द्वारा किया जाएगा बड़े पैमाने पर निवेश किए जाने से प्रभावित हुई है।
इस प्रकार, दुनिया के अधिकतर हिस्से में व्यक्तियों और समुदायों के लिए भूमि अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना अस्तित्व का मुद्दा बन गया है। भूमि तक पहुँच भूख के प्रमुख निर्धारकों में से एक है, और यह आय की तुलना में और भी अधिक असमान रूप से वितरित होती है। भूख से प्रभावित लगभग 20% परिवार भूमिहीन हैं, और भूख से पीड़ित परिवारों में से 50% छोटे भूमिधारक परिवार हैं।
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यूरोप में, हम एक अरसे से अपनी घरेलू कृषि भूमि से सीमा से अधिक उपज प्राप्त कर रहे हैं, इसलिए अब हम वैश्विक दक्षिण से बहुत बड़े पैमाने पर इसका "आयात" कर रहे हैं। यूरोपीय संघ की माँस की खपत को पूरा करने के लिए आवश्यक चारे का उत्पादन करने के लिए ब्राज़ील में यूनाइटेड किंगडम के आकार जितने बड़े कृषि भूमि के क्षेत्र की आवश्यकता होती है। यदि हर मनुष्य उतना माँस खाना शुरू कर दे जितना कि औसतन यूरोपीय संघ का नागरिक खाता है, तो इसका उत्पादन करने के लिए दुनिया की 80% कृषि योग्य भूमि को इसमें लगाना होगा जबकि वर्तमान में यह 33% है। और हमें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए: यह देखते हुए कि चारे की 100 कैलोरी से माँस की अधिकतम 30 कैलोरी तक का उत्पादन किया जा सकता है, इस उद्देश्य के लिए उपजाऊ भूमि का उपयोग करना सरासर बर्बादी है।
कई सरकारें जिस "हरित विकास" का वादा कर रही हैं उससे इस प्रवृत्ति में इस रूप में तेज़ी आएगी कि यह तेल और कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन को बदलने के लिए जैव ईंधन पर निर्भर करता है। जैव ईंधनों से जलवायु को उस हद तक लाभ नहीं मिलता है जितना कि हवा या सौर ऊर्जा प्रणालियों से, क्योंकि इनसे प्रति वर्ग मीटर ऊर्जा का केवल दसवाँ हिस्सा ही प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप, यूरोपीय संघ के जलवायु और ऊर्जा के लिए 2030 के फ्रेमवर्क में में निहित जैव ईंधन की आवश्यकताओं के लिए अतिरिक्त 70 मिलियन हेक्टेयर भूमि - फ्रांस से भी बड़े क्षेत्र - की आवश्यकता होगी।
ऐसा नहीं है कि मृदा की रक्षा करने से समृद्धि में कमी आएगी। इसके विपरीत, वास्तव में स्थायी मृदा संरक्षण प्रथाओं से कृषि पैदावारों में वृद्धि हो सकती है, विशेष रूप से छोटे भूमिधारकों की। फसल विविधीकरण, पुनर्चक्रण, और मृदा की परत ये सभी ऐसी उपयोगी, उपजाऊ, और सक्रिय मृदा में योगदान कर सकते हैं जो इष्टतम जल प्रबंधन करने में सक्षम हो।
कृषि-पारिस्थितिकी नामक तथाकथित दृष्टिकोण, छोटे किसानों के पारंपरिक ज्ञान और अनुभव पर आधारित है जिससे इसे स्थानीय परिस्थितियों के लिए आसानी से अनुकूल बनाया जा सकता है। 2006 में जूल्स प्रेटी द्वारा किए गए कृषि-पारिस्थितिकी खेती के तरीकों के एक अध्ययन में 57 देशों में 286 स्थायी कृषि परियोजनाओं की जाँच की गई और यह निष्कर्ष निकला कि पैदावारों में औसतन 79% की वृद्धि हुई थी।
इस तरह के तरीकों की प्रमाणित सफलता के बावजूद, कृत्रिम उर्वरकों के उपयोग में पिछले 50 वर्षों में पाँच से अधिक गुणक की दर से वृद्धि हुई है, और कई अफ्रीकी सरकारें उन्हें सहायता देने के लिए अपने कृषि बजटों का 60% तक खर्च करती हैं। विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय वातावरणों में, इस तरह के उत्पादों के फलस्वरूप मृदा की ऊपरी परत को नुकसान पहुँचता है और जैव विविधता का भी नुकसान होता है (और अपवाह, महासागरों में चला जाता है जहाँ यह समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों को क्षति पहुँचाता है)। और, यद्यपि उनके मुख्य घटक, नाइट्रोजन को जैविक रूप से और सतत रूप से तैयार किया जा सकता है, परंतु यह कदम मुट्ठी भर शक्तिशाली उर्वरक निर्माताओं और वितरकों के हितों के ख़िलाफ चला जाएगा।
नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करें: गरीब लोग भूख और निर्धनता से बचने के लिए पर्याप्त खाद्य का उत्पादन इस प्रकार कैसे कर सकते हैं कि उससे मृदा की रक्षा हो, जलवायु परिवर्तन में कमी हो, और जैव विविधता की रक्षा हो?
इस मुद्दे की तात्कालिकता के बावजूद, कहीं भी कृषि-पारिस्थितिकी उत्पादन जैसे दृष्टिकोणों को किसी भी गंभीर सीमा तक प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष और वैश्विक मृदा सप्ताह जैसी घटनाएँ इसे नए सिरे से पूरी तरह बदलने का अवसर प्रदान करती हैं।